Monday, December 30, 2013

झुनिया


नही कर पाई झुनिया विस्मृत ह्रदय अनुराग
फिर रही है लिए निज उर में विकल वैराग
मुरझा गया फूलों सा सुवासित मन का बाग
नही गूंजती पंचम सुर में कोयल की वहाँ राग


नही करते रुनझुन पाजेब के घुँगरू
उसके धूल धूसरित थके पाँव में अब
महुआ की मादकता लिए लकदक यौवन
अप्रतिम सोंदर्य स्वामिनी बिसार चली सब


पहाड़ियों पर चलते टटोलती क्या है अधिक कठोर
पथरीली ज़मीन की सतह, या उसका हृदय प्रांगण
वितृष्णा कुछ इस प्रकार घर कर गयी उसके मन
त्याग समस्त संसार करे वो अनुसरण बीहड़ वन


सुधि आई उसे अबके मकर संक्रांति
तातलोई के गुनगुने जल में नहा आए
सुना है उष्ण पानी से कम होती है पीड़ा
निज चितवन का बोझ पवित्र जल में बहा आए


सोचती है फिर जख्म नासूर ना हो जाए
फिर कोई भूल उससे दुबारा ना हो जाए
आँखों में इक अरसे से रुके हुए अश्रुधार से
मीठे जल का स्रोत कँहि खारा ना हो जाए


सुलोचना वर्मा

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