Sunday, February 9, 2014

बहुरुपिया

नही थी परवाह उसे लिंग या मज़हब की
अक्सर बदलकर आता वो अपनी वेश भूषा
बुनता धर्म और समाज के ताने बाने
हमारे गाँव रहता था एक बहुरुपिया


उसकी अभिनय क्षमता ढाल देती थी
उसे नये नये किरदारों में
वो लोगों के जीवन में लगाता सेंध
और निकाल लाता उनके अंदर से अनदेखा सच


कई चेहरे निकल आते थे
हरे नीले दरवाज़ों के पीछे से
जब बहुरुपिया निकल आता था सड़कों पर
दौड़ जाती थी खुशी लोगों के चेहरों पर


बहुरुपिए आज भी निकलते हैं सड़कों पर
पर नही दिखती खुशी की परछाई तक किसी चेहरे पर
कभी खुद को किसी और में ढूंढता; तो कभी किसी मे खुद को पाता
हर कोई जी रहा है दोहरी सी ज़िंदगानी


सीमित है धर्म अब, समाज बिखर सा गया
सिमट गयी घर की देहरी, मंदिर भी ताला जड़ा
अब जंगल के लूटेरों से लेकर, मंदिर के पुजारी तक
शहर की गलियों से, गाँव के नुक्कर तक, हर कोई बहुरुपिया है


सुलोचना वर्मा

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