Wednesday, February 26, 2014

अतुकांत

-------------------------------
मनुष्य की अनंत इच्छाएं
जान लेना चाहती है वह सब कुछ
जो परे है उसकी समझ से
मान लेना चाहता है मानव
स्वयं को बुद्धिजीवी
और तर्क ढूंढने लगती है
उसकी  बौद्धिकता
हर होनी के पीछे का
तोड़कर प्रकृति के हर नियम
कर लेना चाहता है
स्वयं को अनुशासित
निज भी गढ़ता है नित्य नए प्रमेय 
और रखता है दृढ विश्वास
उन पौराणिक कथाओं में
हुआ था जिनका सूत्रपात
पाषाण युग की किसी कन्दरा में
और व्यतीत हो जाता है
जीवन को छंद मान
मात्रा नापने और तुक बैठाने की
इस आपाधापी में
जीवन का हर वसंत
जो बना देती है जीवन को
एक पर्ण विहीन वृक्ष
शब्द सूखकर झड़ जाते हैं जिससे
वक़्त के क्रूर पन्नो पर
और नहीं कर पाते चिन्हित कोई भाव 
आह ! यदि जीवन धारा
ढल जाती बन अतुकांत कविता
तो शब्द पिघल पिघल कर
भाव की सरिता में बहते
और बहते बहते जा मिलते
अनंत के सागर में
होता जीवन तब सार्थक
धरती पर जन्म लेकर

सुलोचना वर्मा

1 comment: