Monday, February 3, 2014

क्षितिज के चंद्रहार

क्यूँ देखते हो तुम
अपनी अभिलाषा के रक्तिम पुष्प को
जो रुला जाती हैं तुम्हे
और दिवा-स्वप्न ही रह जाती है
दिव्य मुस्कान अधरो पर

 
जिन्हे तुम मोती कहते हो
वो अनार के दाने हैं
टूटकर बिखर जाएँगे
जब यौवन का सूरज ढलेगा
अनुभवों के पहाड़ों पर


वो काँपते अधरो की सिसकियाँ नही
पत्तियो की सरसराहट है
क्यूँ कोसते हो पतझड़ को
गाते हुए प्रेम वीथि में
आरज़ू के बहारों पर


जब इला सजकर दुल्हन सी
चली प्रीत की नगरिया
क्यूँ दिखलाते हो राग
तब विस्मृत कर अनुराग
डोली के कहाँरों पर


कभी की तारों की वृष्टि
कभी बरसाई शीतल चाँदनी
ना कुम्हलाओ ऐ अनुरागी
कब वसुधा हुई समर्पित
क्षितिज के चंद्रहारों पर

सुलोचना वर्मा


 

2 comments:

  1. ब्लॉग पर नए हैं, आप ! पर आपकी रचना ........ प्रभावित करने लायक है .......
    बहुत सुंदर भावभीयक्ति

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  2. आपका हार्दिक आभार

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