Saturday, February 8, 2014

मुठ्ठी भर आसमान

गुड्डी, इक इठलाती रंगीन पतंग, जब भी आसमान की सैर पर जाती, तो चिड़ियों को बिना किसी बंधन के उड़ता देख यही सोचती कि काश ! उसे भी ऐसी आज़ादी होती | उसे डोर के साथ बँधे रहने में घुटन सी महसूस हो रही थी | वह  इस बंधन को तोड़ हवा के साथ उड़  जाना चाहती थी  | सोचती थी हवा का साथ मिलेगा तो अपने पंख पर वर्चस्व की आशाओं का बोझ लेकर वह  पूरी दुनिया घूम सकेगी | जब जिधर  हवा का रुख़ होगा, तब उधर ही चल देगी|

घुटन  होने पर लोग ऐसा काम कर जाते हैं जिसके बारे में कभी सोचा भी ना हो | बस, फिर क्या था| एक दिन जब डोर गुड्डी को अपने साथ आसमान ले जाना चाहता था, गुड्डी कुछ सोचकर दूसरी तरफ चल पड़ी-हवा के ठीक विपरीत दिशा में |  पतंग तब आसमान की ओर बढ़ती है जब हवा का प्रवाह पतंग के उपर और नीचे से होता है, जिससे पतंग के उपर कम दबाव और पतंग के नीचे अधिक दबाव बनता है। यह विक्षेपन हवा की गति कि  दिशा के साथ क्षैतिज खींचाव भी उत्पन्न करता है। हवा आश्चर्य के साथ और डोर मायूस होकर अस्त व्यस्त अवस्था में ज़मीन पर आती पतंग को देखता रहा | 

गुड्डी को ज़मीन पर आते देख लोग दौड़ते हुए उसकी तरफ बढ़ रहे थे | दौड़ने वालों में वो भी थे जिन्हे पतंगबाज़ी का शौक था; और वो भी जो सिर्फ़ पतंग लूटना जानते थे, जिनका पतंग उड़ाने से कोई सरोकार नही था | वो इन पतंगो को लूटकर किसी तहख़ाने में जमा करते और अपनी शान में पतंगबाज़ी की झूठी कहानियाँ गढ़ते |

गुड्डी तो आज़ाद होना चाहती थी | अभी आज़ाद हुई भी नही थी की उसकी आज़ादी को उसकी आवारगी जान कई हाथ उसकी तरफ बढ़ने लगे | वह भाँप गयी की उसके चिथड़े होने में तनिक भी समय नही लगेगा | आख़िर थी तो वह काग़ज़ की ही एक पतंग| उसने एक भी क्षण बिना  गँवाए, पकड़ लिया हवा का दामन और चल पड़ी डोर के साथ | अब वह हर परिस्थिति में डोर के साथ बँधी रहती है | उसे उसकी आज़ाद होने की कोशिश का वह भयावह दृश्य और उससे मिला अनुभव डोर से बाँधे रखता है| वह जान चुकी है कि उसे नभ का अपरिमित विस्तार नही मिल पाएगा ; पर चेहरे पर संतोष है इस बात का की उसके पास भी मुठ्ठी भर ही सही, पर अपना थोड़ा सा आसमान तो है|

सुलोचना वर्मा

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