Monday, December 16, 2013

नारी

नारी- जो अंतरिक्ष हो आई है
और रखती है व्रत सोलह सोमवार का
कभी छोटे बाल लिए जाती है दफ़्तर में
कभी गोबर की थाप से मांडती है गोयठा
कहीं भावनाओं की तुलिका से उकेरती हैं जीवन
कहीं घंटो घर बैठकर बनाती है वो जुड़ा
कभी आती है किसी प्रतियोगिता में अव्वल
कभी घर घर जाकर वो चुनती है कूड़ा
दौड़ती है बच्चे के पीछे खिलाने को आख़िरी निवाला
चिकित्सालय में बैठ कभी मापती है रक्त चाप
नही रोक पाती है खुशी में अपने टेशु
फिर थिरकती है जब पड़ते हैं तबले पर थाप
कहीं आधुनिका, तो कहीं धर्म की आस्था है नारी
कभी ग़रीबी का संकोच, तो कभी अमीरी का जश्न है नारी
आजीविका का कहीं हूनर, तो कहीं बौधिक्ता का स्तर है नारी
अनेक रूप हैं तुम्हारे, और तुम हर रूप में संपूर्ण हो नारी


सुलोचना वर्मा

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