Saturday, December 14, 2013

शिला

कलकल बहती चंचल सरिता
जा मिली समंदर के फेनिल जल में
नही अंगीभूत कर पाई खारे पानी का स्वाद
और उसे विस्मृत हुआ बलखाना
क्यूँ जाते हो उस तट पर पथिक
मुख पर प्रश्नचिन्ह लिए निशिदिन
क्यूँ भ्रमित हो सागर के मौन व्रत पर
और प्रवाहित करते हो आशा लिए
अपनी संवेदनाओं का शिलाखंड
तो करो ! कभी ना समाप्त होनेवाली प्रतीक्षा
और निरंतर अपेक्षा करो उसी तट पर
स्वयं के शिला में परिवर्तित होने तक
तुम्हारी शिला ले लेगी आश्रय
उसी विषाक्त जलराशि में
और रत्नाकर बना लेगा सेतु
उन शिलाखंडों को जोड़कर
जिसकी तुम नीव बनोगे
या फिर पयोधि का  चक्रवात
फेंक देगा तुम्हारी शिला को कँहि दूर
और उठा ले जाएगा कोई तुम्हे देव स्वरूप मान
स्थापित करेगा तुम्हे मंदिर में
होगा नित्य जलाभिषेक तुम्हारा
और तुम पाषान सा मूक होकर
मान लोगे इसे नियति की दशा


सुलोचना वर्मा

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