Sunday, February 5, 2017

इमोटिकॉन

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हाथों में स्मार्टफोन लिए 
इनबॉक्स के पत्रशिल्पी 
भूल जाते हैं अक्सर मादरी ज़बान
और बतियाते हैं सुविधा की विदेशी भाषा में 

जहाँ बात-बात में इमोटिकॉन चेपते 
वह दिखना चाहते हैं आधुनिक 
नहीं करती है उनका ध्यान आकर्षित 
उनके शब्दकोष के अक्षरों की यह दरिद्रता 

इमोटिकॉन संभाल लेता है भावनात्मक आवेगों को 
बिना इस्तेमाल किए मादरी ज़बान के वो तमाम शब्द 
जिनका प्रयोग माना जाता है अनुचित पत्राचार में
शिष्टाचार के मद्देनजर, भद्रलोक के संसार में 
फिर यह बचा भी तो लेता है व्याकरण के अतिरिक्त बोझ से 

मुझे भयाक्रांत करती है एक आशंका 
कि मुझे नहीं है विशेष समझ चित्रकला की 
और अगर होते रहें इसी तरह लोग स्मार्ट दिन-प्रतिदिन 
किसी रोज गुम हो जाएँगे समस्त अक्षर इतिहास की गुफाओं में 

शायद किसी रोज़ हम वापस पहुँच जाएँ उसी आदिम समाज में 
जहाँ है दर्ज कंदराओं के पाषाण पर हमारे पूर्वजों का होना चित्रों में 
पर भूल जाएँ स्वयं पाषाण होकर दर्ज करना अपना होना पाषाण पर 
पत्राचार के मशीनी भाव में डूबे हम मानव और मानवी 

जहाँ पाषाण शिल्पी महसूस कर सकते हैं दर्द पत्थरों का तराशते हुए 
इनबॉक्स के पत्रशिल्पी बन रहे हैं स्वयं पाषाण सा- इमोटिकॉन 
जो बस दिखता ही है भावपूर्ण जबकि होता है भावशून्य असल में 

इन दिनों मेरी मूक प्रार्थनाओं में उभर आता है अक्स  
किसी अज्ञात पाषाण शिल्पी का अक्सर बंद आँखों में 
कि किसी रोज जब हम हों चुके हों परिवर्तित पाषाण में
एक वही तो होगा जो तराशकर हमें फिर मनुष्य बनाएगा

देख लेना, अंततः शिल्पी ही शिल्पी को बचाएगा !!!

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