--------------------------------------------------------------
चल पड़ी थी मैं किसी गोधूलि बेला में तुम्हारे साथ
कर प्रतिवेश के विधिनिषेध की देहरी को पार
कि तुम्हारे साथ चलना था किसी सृष्टिसुख में होना
ठीक जैसे हमारा परस्पर दुःख नहीं छोड़ता हमें अकेला
जो चलते हम कुछ और कदम साथ
तो शायद नियति रचती कुछ और ही खेला
नियति दुविधा में थी हमारी ग्रहण-योग्यता को लेकर
या तुम भांप चुके थे गति का विधान
प्रणय अभ्यास में तुम समय के साथ रहे
चल रही हूँ इन दिनों मैं अकेली आस्तित्व के साथ
बेकल करता है स्मृतियों का निःशब्द तुषारापात
जीवन बीत रहा है जैसे निष्प्रदीप एक रात
मालूम तो नहीं मुझे ठीक जा रही हूँ किस ओर
क्यूँ करूँ चिंता मैं गंतव्य के दूरियों की अब
जब चलती ही जा रही हूँ अहर्निश स्व-विभोर
चल पड़ी थी मैं किसी गोधूलि बेला में तुम्हारे साथ
कर प्रतिवेश के विधिनिषेध की देहरी को पार
कि तुम्हारे साथ चलना था किसी सृष्टिसुख में होना
ठीक जैसे हमारा परस्पर दुःख नहीं छोड़ता हमें अकेला
जो चलते हम कुछ और कदम साथ
तो शायद नियति रचती कुछ और ही खेला
नियति दुविधा में थी हमारी ग्रहण-योग्यता को लेकर
या तुम भांप चुके थे गति का विधान
प्रणय अभ्यास में तुम समय के साथ रहे
चल रही हूँ इन दिनों मैं अकेली आस्तित्व के साथ
बेकल करता है स्मृतियों का निःशब्द तुषारापात
जीवन बीत रहा है जैसे निष्प्रदीप एक रात
मालूम तो नहीं मुझे ठीक जा रही हूँ किस ओर
क्यूँ करूँ चिंता मैं गंतव्य के दूरियों की अब
जब चलती ही जा रही हूँ अहर्निश स्व-विभोर
No comments:
Post a Comment