Thursday, February 16, 2017

नदी की आत्मकथा

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जब लौट आयी मैं कोलकाता के बाबुघाट से 
तो देखा नदी ने लिख दी थी अपनी आत्मकथा 
मेरे दुपट्टे के किनारों पर अपने जल से 

पढ़ रही हूँ आत्मकथा नदी की इन दिनों 
तो उतर रही है एक नदी मेरे भीतर भी 
नींद की नौका अक्सर ले जाती है मुझे हुगली पार 

लौटने से महज कुछ घंटों पहले भी गयी थी घाट पर 
जब फिसलकर गिरी थी सीढ़ियों पर घाट के 
मेरी आँखों से छलका जल जा मिला था नदी में 
और चखा था नदी ने मेरे दुखों का स्वाद 

अब कुछ बूँद बनकर बह रही हूँ मैं भी नदी के साथ 
साझा है यात्रा में हमारा परस्पर अन्तर्जलीय दुःख 
नदी महज नदी नहीं, एक प्रान्त है, हर लहर उसका जनपद 

निकल जाना चाहती थी बैठ डिंघी में किसी रात निरूद्देश 
जैसे बहता रहता है नदी पर केले के पत्ते पर रखा नैवैद्य 
कौशिकी अमावश्या की अगली सुबह काली पूजा के बाद 

किया है नालिश अपनी आत्मकथा में नदी ने धर्म के ठेकेदारों का 
कि उनके व्यर्थ के कर्मकाण्ड का बोझ सहना पड़ता है उसे 
और लिए धरती का कचड़ा वह कूद रही है समंदर में  
कर रही है वह कई सदियों से प्रायोजित आत्महत्या इस प्रकार

किंकर्तव्यविमूढ़ नदी नहीं दे पायी जवाब आज तक 
भूपेन हजारिका के गीत का 'ओ गंगा बहती हो क्यों'
तैरता है गंगा का संगीत हुगली के पानी में 
गंगा का स्थायी है, अंतरा हुगली का 

करती हूँ नदी को याद मैं इतना इन दिनों 
नहीं किया होगा भगीरथ ने भी स्मरण उतना गंगा का 
धरती पर होने के लिए अवतरित 
लम्बी होती है आत्मकथा हमेशा ही किसी मन्त्र की अपेक्षा  

बाबुघाट के सुनहले जल पर खूब दमक रहा था आसमान 
उसी आसमान में विचरता है मेरी स्मृतियों का राम चिरैया 
उस राम चिरैया के होठों के बीच है दबा हुगली का संसार 
उस संसार पर शोध कर रहे हैं इन दिनों देश के वैज्ञानिक 

मेरी स्मृतियों के पाँव सने हैं हुगली की रेत में अब भी 
जबकि मैं बैठी हूँ देश की राजधानी के पास छोटे शहर में 
जहाँ सिटी पार्क में बैठ किसी नीलकंठ को सूना रही हूँ 
नदी की आत्मकथा; नीलकंठ सुनता है, कुछ नहीं कहता  

एक रात नींद की नौका पर सवार मैं फिर उतरी हुगली पार 
नदी के जल को छूकर पूछा "तुम्हें ठीक किस जगह दर्द है'?
नदी ने कहा इशारों में - रेत पर, सुन्दरी के पेड़ों की जड़ के पास 
बची हुई हिलसा मछलियों की छटपटाहट के ठीक मध्य

हुगली के दुःख से मलिन है बांग्लादेश की पद्मा 
पद्मा की हिलसा मछली गाती है हुगली की हिलसा का विरह 

गंगा का कोई मजहब नहीं है 
हिन्दू हो या मुसलमान, मिटाती है प्यास सभी की 
नहा सकता है कोई भी इसके जल में 
और यह बनी रहती है पवित्र 
नहीं लिखा गया कोई मन्त्र इसके शुद्धिकरण के लिए 

लौट ही रही थी मैं कि मेरे पाँव पखारती नदी ने कहा 
"बचा लो मुझे, जो करती हो प्यार, मुझे रहना है जिंदा"
देखा मैंने शहर की गंदगी को नदी में मिलाते नलिका को 
क्या कहती, चुप ही रही और खूब हुई शर्मिंदा 

उसी क्षण पढ़ा था मैंने मोबाईल में अंतर्जाल पर 
जल प्रदुषण पर हुए शोधों के विषय में 
और पाया था कि खेल रहे हैं जल वैज्ञानिक 
पृथ्वी पर कबड्डी का खेल अन्धकार में  

गैर सरकारी संगठन बेच रहे हैं दुःख अलग-अलग मंचो पर 
कि नदी का दुःख ही है उनका प्रिय व्यवसाय 
हम किए जा रहे हैं प्रदुषण से प्रणय 
और किए जा रहे हैं वहन प्रदुषण प्रणय के साथ 

बता रहे हैं सुंदरवन से चलकर कोलकाता तक पहुँचे सुन्दरी के पेड़ 
कि जान्हवी इन दिनों लौटना चाहती है स्वर्ग 
धरती पर जान्हवी जहन्नुम की साक्षी है !

रोती है गंगा आलमगीर मस्जिद के बाहर; अल्लाह नहीं सुनते 
बिलखती है हुगली कालीघाट पर; देवी रहती है मौन

कर तपस्या भगीरथ ने गंगा को बुलाया था धरती पर स्वर्ग से 
धरती के हम मानव मानवियों का श्रम उसे बना न डाले "स्वर्गीय" !!

नींद की नौका, जो ले गयी थी मुझे बाबुघाट पर हुगली किनारे 
छोड़ गयी है मुझे भोर की छोर पर 
अनुसरण करते हुए सूरज की स्वर्ण रेखाओं का 
घेर रखा है एक अपरिचित मौन ने मुझे इन दिनों 
कि नदी ने अपनी आत्मकथा में छोड़ रक्खे हैं कुछ पन्ने रिक्त !

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