Monday, February 13, 2017

शाम्भवी योग

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किसी  रक्तपूर्णिमा की रात 
मेरे अभिधान से झड़े थे कुछ शब्द
विषाद के रंग में सने  
रोप आयी थी उन्हें मैं घर के दक्षिण दुआर पर 
कि कहा था पिता ने विदाई से ठीक पहले 
नहीं दिखाना कभी किसी को अपना दुःख 

डाला मेरे दुखों पर बारिश ने पानी और रौशनी सूरज ने
जब बदला करवट मौसम ने और चली बसंती हवा 
उग आया पेड़ मेरे दुखों पर, खिला जिस पर रक्त जवा 

चढ़ा रहें है पत्थर के महादेव को रक्त जवा 
आजकल, मेरे ही असीम दुखों के अधिष्ठाता
मेरे अश्रुजल से हो रहा है उनका जलाभिषेक 

मौन हैं देवता, चुप हूँ मैं भी 
खुली हैं आँखें हम दोनों की 
और कुछ देख भी नहीं रहे 
शाम्भवी योग कहते हैं जिसे

देवता ढूँढ रहे हैं सूत्र 
मनुष्य होने का, योग द्वारा 
कि समझ सकें इंसानों के तुच्छ दुःख 
मैं हूँ प्रतीक्षारत कि न जाने लगेंगे कितने कल्प 
मुझे पत्थर हो जाने में !!

समझना चाहती हूँ मैं देवताओं की विवशता !

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