Friday, August 26, 2016

एक दिन

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एक दिन मैं बहती हुई मिलूँगी समंदर के फेनिल जल में 
तुम्हें उस जल का स्वाद पहले से कहीं अधिक खारा लगेगा 
एक दिन मैं बहती हुई जा मिलूँगी नरम हवा के साथ
उस रोज हवा में होगी सांद्रता पहले से कुछ ज्यादा ही 
एक दिन मैं बहती हुई पहुँच जाऊँगी तुम्हारी चेतना तक 
और जम जाऊँगी कैलाश पर्वत पर जमे बर्फ की तरह 

एक दिन शायद तुम मुझे करोगे याद देर तक भूलवश 
उस रोज मैं पिघल जाऊँगी, बहने लगूँगी बनकर तरल   
फिर कहाँ जा पाऊँगी कहीं और, रहूँगी तुम्हारे अंदर ही 
बहती रहूँगी तुम्हारे रक्त के साथ हृदय की धमनियों तक 

---सुलोचना वर्मा -----

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